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अर्थ : जैन शास्त्रानुसार वह उपलब्धि जिसमें मुनिराज अपनी शङ्का के समाधान के लिए हस्त-मात्र शरीर धारण कर तीर्थङ्कारों के पास उपस्थित होते हैं।
उदाहरण : मुनिराज को आहारक की प्राप्ति हुई है।
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